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राजस्थान किसान आंदोलन Rajasthan kisan andolan

मारवाड़ किसान आंदोलन Marwad kisan andolan

मारवाड़ किसान आंदोलन मुख्यतः जयनारायण व्यास के नेतृत्व में मारवाड़ हितकारी सभा द्वारा चलाया गया था।

मारवाड़ किसान आंदोलन के मुख्य कारण –

  1. किसानो पर तिहरा नियंत्रण ( राजा, अंग्रेज़, जागीरदार )
  2. 136 प्रकार के कर लिया जाता था। 
  3. 1929 की आर्थिक मंदी 
  4. 1931 के अकाल के बाद भी लगान में कोई छूट नही। 
  5. बेगार प्रथा
  6. बिगोडी ( लगान नक़दी में लिया जाता ) बहुत ज़्यादा थी।

मारवाड़ के किसान आंदोलन का सूत्रपात सन् 1922 में हो गया जब बाली व गोडबाड़ के भील-गरासियों ने मोतीलाल तेजावत के एकी आंदोलन से प्रभावित होकर जोधपुर राज्य को लगान देने से इंकार कर दिया।

मारवाड़ हितकारिणी सभा ने जयनारायण व्यास के नेतृत्व में मादा पशुओं के राज्य से बाहर भेजने के मुद्दे पर आंदोलन किया था आंदोलन के फलस्वरुप मादा पशुओं के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया गया था

किसानों ओर जनता का ध्यान आकर्षित करने के उद्देश्य से सभा ने दो पुस्तिकाएं – पोपाबाई की पोल एवं मारवाड़ की अवस्था प्रकाशित की थी। ये दोनो किताबें जयनारायण व्यास ने लिखी थी।

1929 में मारवाड़ देसी राज्य लोकपरिषद की स्थापना की गयी। लेकिन इस पर राजा ने प्रतिबंध लगा दिया। ओर इसका पहला अधिवेशन 1931 में पुष्कर में चाँदकरण शारदा के नेतृत्व में हुई। बिगोड़ी समाप्त की जाये, जागीरदारो के न्यायिक अधिकार समाप्त किये जाये, पंचायत की स्थापना की जाये, भूमि पर स्वामित्व दिया जाये, बेग़ार समाप्त की जाये आदि माँगे राजा के सामने रखने का निर्णय लिया गया।

सन 1929 को मारवाड़ हितकारिणी सभा ने जागीरों से किसानों को लाग-बाग तथा शोषण से मुक्ति दिलवाने के लिए पुनः आंदोलन चलाया।

जोधपुर राज्य ने तरूण राजस्थान पर प्रतिबंध लगाते हुए 20 जनवरी 1930 को जयनारायण व्यास, आन्नदराज सुराणा तथा भंवर लाल सर्राफ को बंदी बना लिया। किसानो की कुच माँगे मान ली जाती है।

1938 में मारवाड़ लोक परिषद की स्थापना हुई ओर इसका विरोध में मारवाड़ के राजा ने बलदेव राम मिर्धा के नेतृत्व में मारवाड़ किसान सभा की स्थापना की।दोनो संगठन एक दूसरे की नीतियो का विरोध कर रहे थे।

ठिकाने के खिलाफ 7 सितम्बर 1939 को लोक परिषद के नेतृत्व में किसानो ने लाग-बाग की समाप्ति के लिए आंदोलन किया और लाग-बाग देना बंद कर दिया।

28 मार्च 1942 को चंढावल(पाली) में उत्तरदायी शासन दिवस मनाने के लिए आये लोक परिषद कार्यकताओं पर लाठियों और भालों से हमला हुआ। महात्मा गांधी सहित कई नेताओं ने घटना की चारो तरफ निंदा की।

लोक परिषद तथा किसान सभा के नेता 3 मार्च 1947 में आयोजित किसान सम्मेलन में भाग लेने के लिए डीडवाना स्थित डाबडा(नागौर) पहुंचे। इनमें मथुरादास माथुर, द्वारका प्रसाद राजपुरोहित, राधाकृष्ण बोहरा ‘तात’ नृसिंह कच्छावा के नेतृत्व में पांच-छह सौ जाट किसान सम्मिलित थे।सम्मेलन पर हमला हुआ और दोनों तरफ से हिंसा का प्रयोग किया गया। जागीरदार की ओर से महताब सिंह और आंदोलनकारियों की ओर से जग्गू जाट तथा चुन्नीलाल मारे गए।डाबडा काण्ड में पनाराम चौधरी और उनके पुत्र मोतीराम को लोक परिषद नेताओं को शरण देने के कारण मारा गया। 6 किसान शहीद हो जाते डाबडा(नागौर) काण्ड में।

इस हिंसा की पूरे देश के अखबारों सहित राष्ट्रीय स्तर के नेताओं ने आलोचना की। 

जून 1948 में जयनारायण व्यास के नेतृत्व में आजाद भारत में राजस्थान के मंत्रीमण्डल में नाथूराम मिर्धा कृषि मंत्री बने और 6 अप्रेल 1949 को मारवाड़ टेनेन्सी एक्ट 1949 से किसानों को खातेदारी अधिकार प्राप्त हो गए।

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अलवर किसान आंदोलन  Alwar kisan andolan 

निमूचाणा किसान आन्दोलन (1924 – 25)

अलवर रियासत में 1924 में भू बंदोबस्त हुआ। इसमें लगान 40 फीसदी बढ़ा दिया गया। साथ ही राजपूत ओर ब्राह्मण किसानों की रियासती जमीन खत्म कर दी। इतना भारी लगान किसानों की कमर तोड़ने वाला था। नीमूचाणा में किसान गोविंद सिंह और माधो सिंह ने इसके खिलाफ आवाज उठाई। 1925 में लगान के विरोध में नीमूचाणा में करीब 200 किसानों ने सभा कर पुकार नाम की पुस्तिका का प्रकाशन किया, जिसमें किसानों की समस्याएं उठाई गईं। ये पुकार पुस्तिका जनवरी 1925 में अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के दिल्ली अधिवेशन में दिखाई गयी। अलवर के राजा जयसिंह के सामने अपनी माँगे रखी।

किसानो की माँगे – 

  1. भू-राजस्व कर कम किया जाये
  2. चराई कर कम किये जाये
  3. जंगली सूवर को मारने की इजाज़त हो
  4. बेगार नही ली जाये
  5. माफ़ी की भूमि को ज़ब्त नही की जाए 7 मई 125 अलवर के राजा जयसिंह ने किसानो से मिलने जनरल रामभद्र ओझा को भेजा। लेकिन कोई समाधान नही निकला। 

14 मई 1925 को नीमूचाणा में किसानों की बड़ी सभा बुलाई गई। अलवर नरेश ने छाजू सिंह के नेतृत्व में अपनी मिलिट्री भेज सभा पर फायरिंग कराई। इसमें करीब डेढ़ 156 किसानों की मौत हुई ओर 39 लोगों को गिरफ़्तार कर लिया जाता है। उनके गांव जला दिए गए। इस वीभत्स नरसंहार की पूरे देश में जलियांवाला बाग हत्याकांड से तुलना की गई। गाँधी जी ने अपने समाचार पत्र यंग इंडिया में जलियांवाला बाग हत्याकांड से भी भयानक बताया ओर दोहरी डायर शाही कहा था। 

तरुण राजस्थान में नीमूचाणा घटना के बारे में सचित्र छापा। राजस्थान सेवा संग ने जाँच के लिये कन्हैयालाल कलन्त्री, हरीभाई किंक़र ओर लादूराम जोशी को भेजा। राजा जयसिंह ने भी जाँच आयोग बनाया था जिसमें छाजु सिंह, रामचरन, सुल्तान सिंह थे। 

वीर अर्जुन अखबार ने कलकत्ता संस्करण में इसके बारे में छापा। घटना अलवर के आजादी के आंदोलन की चिंगारी बन गई। रियासत को झुकना पड़ा और किसानों को मुआवजा तथा पुरानी दर से लगान की राहत मिली।

मेव किसान आंदोलन mev kisan andolan (1932 – 34)

  • सन् 1923-24 ई. मे लागू किया गया भू-राजस्व बंदोबस्त मेव किसानों में असंतोष उत्पन्न करने वाला सिद्ध हुआ ।
  • 1932 ई. में मेव किसान आंदोलन मेवात ( अलवर, भरतपुर) में मोहम्मद अली के नेतृत्व में हुआ ।
  • मेव किसान आंदोलन की समाप्ति 1934 ई. में हुई । क्योंकि ये आंदोलन धार्मिक ओर हिंसक हो गया था। 
  • अलवर के महाराजा जयसिंह को देश निकाला दे दिया गया ।
  • 26 फरवरी 1944 ई. को अलवर में स्वतंत्रता दिवस मनाया गया । 
  • 5 फरवरी 1947 ई को भरतपुर में प्रजा परिषद् के नेतृत्व में बेगार विरोधी दिवस मनाया गया ।
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बूंदी किसान आंदोलन Bundi kisan andolan 

सन 1922 में पंडित नैनू राम शर्मा के नेतृत्व में बूंदी के किसानो ने मुख्यत “राज्य प्रशासन” के विरूद्ध बूंदी किसान आंदोलन किया था, जबकि मेवाड़ में किसानों ने अधिकांश आंदोलन जागीर व्यवस्था के विरोध में किया था। बूंदी किसान आंदोलन में स्त्रियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और महिलाओं का नेतृत्व अंजना देवी चौधरी ने किया था। 

बूंदी किसान आंदोलन के कारण – 

1. 25 प्रकार के कर

2. अधिक भू-राजस्व

3. लाता – कुंता

4. बेगार

5. युद्ध कर

6. भृष्टाचार 

बूंदी के दक्षिण पश्चिम में मेवाड़ राज्य को स्पर्श करने वाला क्षेत्र भी बरड के नाम से जाना जाता है। पथरीला व कठोर होने के कारण इस क्षेत्र बरड़ के नाम से जाता है। इसलिए बूँदी किसान आंदोलन को बरड़ किसान आंदोलन भी कहा जाता है।भंवरलाल सोनी के नेतृत्व मे बरड़ किसान आंदोलन प्रारंभ किया था।बरड क्षेत्र में सर्वप्रथम अगस्त 1920 में साधु सीताराम दास द्वारा डाबी में डाबी किसान पंचायत की स्थापना की और राजपुरा के हरला भड़क को किसान पंचायत का पहला अध्यक्ष बनाया गया।

राजस्थान सेवा संघ के प्रोत्साहन के परिणाम स्वरुप बूंदी के किसानों ने सर्वप्रथम अप्रैल 1922 में बूंदी सरकार के विरुद्ध पंडित नैनू राम शर्मा के नेतृत्व मे बूंदी किसान आंदोलन प्रारंभ किया। किसानों ने निर्णय लिया कि खादी को बढ़ावा दिया जायेगा, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया जायेगा, शराब बंदी की जायेगी, लगान नहीं दिया जायेगा, जंगल वाली सभी वस्तुओं पर कर नहीं दिया जायेगा, राजकीय चारागाह भूमि पर कब्जा कर लिया जायेगा, सरकारी न्यायालय का बहिष्कार किया जायेगा और 4 किसान पंचायत डाबी, बरड़, गरदढ़ा, बरूंघन स्थापित की जायेगी।

2 अप्रेल, 1923 ई. में बूंदी के डाबी नामक स्थान पर किसानों का सम्मेलन हुआ, जहाँ पर पुलिस अधीक्षक इकराम हुसैन ने गोली चला दी। जिससे नानक जी भील व देवीलाल गुर्जर घटना स्थल पर ही शहीद हो गये। नानक जी भील झण्डा गीत गा रहे थे ज़ब उनको गोली लगी थी। राजस्थान सेवा संघ द्वारा इस घटना की जांच के लिए रामनारायण चौधरी और सत्याभगत को भेजा गया था और रिपोर्ट को समाचार पत्रों में छापा। तरूण राजस्थान, नवीन राजस्थान (अजमेर) , राजस्थान केसरी (वर्धा), प्रताप (कानपुर) आदि समाचार-पत्रों में आंदोलनकारियों पर किये जा रहे जुल्मों का व्यापक रुप से प्रचार हुआ। बूँदी राज्य की सभी जगह से आलोचना होने लगी, जिससे बूंदी राज्य के राजा ने तीन लोगो के नेतृत्व में पृथ्वी सिंहरामप्रताप एवं भैरोंलाल, जांच आयोग का गठन किया। इसके बाद भी किसानों को कोई रियायत नहीं मिली। पंडित नैनू राम शर्मा, नारायण सैनी, भंवरलाल सोनी को गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया। नेतृत्व विहीन होने के कारण यह आंदोलन धीरे-धीरे कमजोर पड़ने लग गयाऔर 1927 में समाप्त हो जाता है।

माणिक्यलाल वर्मा ने नानक भील की स्मृति में ‘ अर्जी ‘ शीर्षक से एक गीत लिखा जो आंदोलनकारियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना। वर्मा जी ने पंछीड़ा शीर्षक से एक गीत बिजोलिया किसान आंदोलन के लिए भी लिखा था।

बूँदी किसान आंदोलन के दौरान महिलाओं के साथ हुई अत्याचार पर राजस्थान सेवा संघ ने ‘बूंदी राज्य में महिलाओं पर अत्याचार’ नामक पुस्तिका प्रकाशित की थी।

1936 में लगान बढ़ाना, चराई कर, चरागहा भूमि पर राज्य का नियंत्रण, पशु गणना(पशुओं पर कर लगाने की संभावना), युद्ध कर आदि के कारण किसानों ने फिर से आंदोलन शुरू कर दिया। इन सभी कारणों से 5 अक्टूबर 1936 को हिंडोली में हुडेश्वर महादेव के मंदिर पर गुर्जर और मीणा किसानों की एक सभा हुई, जिसमें 90 गांवों के लगभग 500 व्यक्ति सम्मिलित हुए थे। किसानों ने राजा के पास अपनी मांगे भेजी और कालांतर में कुछ मांगे मान ली गई और यह आंदोलन 1945 में समाप्त हो गया।

डाबी नामक स्थान वर्तमान में बूंदी जिले में स्थित है ।इस आंदोलन में गुर्जर जाति के किसानों ने सबसे ज्यादा भाग लिया था।

बूंदी किसान आंदोलन का स्थानीय नेतृत्व स्वामी नित्यानंद ने किया था।

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शेखावाती किसान आंदोलन

1922 में सीकर ठिकाने के ठिकानेदार माधोसिंह की मृत्यु के बाद उनके भतीजे राव राजा कल्याण सिंह ने गद्दी संभाली और उन्होंने करों  में अत्यधिक वृद्धि कर दी।इसके विरोध में किसानो ने कर देना बंद कर दिया ओर यही से ये आंदोलन शुरू हो गया।इस आंदोलन के कुछ अन्य कारण भी माने जाते है। 

शेखावाटी किसान आंदोलन के कारण –

  1. भू-राजस्व कर में वृद्धि
  2. ज़रीब की लंबाई आधी कर दी गई थी ( 165 फीट से 82.5 फ़ीट )
  3. असिंचित भूमि पर भी सिंचित भूमि जितना कर लिया जाता था।
  4. अकाल के समय कोई रियायत नहीं दी जाती थी।
  5. लाता – कुंता ( लुटेरी व्यवस्था )
  6. इजाफा कर लगा दिया गया था ( प्रति बीघा 2 आना नया कर )
  7. ज़कात कर – जब कृषि सामान को एक जगह से दूसरी जगह क्रय विक्रय ले जाने पर लगने वाला कर
  8. किसानो के साथ जातीय भेदभाव होता था।
  9. बेग़ार 1918 में मास्टर प्यारेलाल गुप्ता ने चिडावा , झुँझुनू में अमर सेवा समिति का गठन किया। ये समिति इस छेत्र में जन जाग्रति का काम करती थी।

शेखावाटी किसान आंदोलन का प्रारंभ सीकर ठिकाने से माना जाता है रामनारायण चौधरी ने तरुण राजस्थान समाचार पत्र में शेखावाटी किसान आंदोलन के समर्थन से क्रांतिकारी लेख लिखकर जागृति उत्पन्न कि थी। रामनारायण चौधरी ने लंदन से प्रकाशित डेलीहेराल्ड नामक पत्र में भी शेखावाटी किसानों के किसानों की समस्याओं के समर्थन में लेख लिखे थे। रामनारायण चौधरी के प्रयासों से 1925 मे हाउस ऑफ कामन्स के सदस्य पेट्रिक लॉरेंस ने सीकर के किसानों के मामले में प्रश्न पूछा था। ये पहला किसान आंदोलन था जिसकी चर्चा ब्रिटिश संसद में हुई थी।

रामनारायण चौधरी ओर हरी ब्रह्मचारी से साथ तरुण राजस्थान पत्रिका पर भी शेखावटी में प्रतिबंध लगा दिया गया था।

1931 में भरतपुर के किसान नेता ठाकुर देशराज ने राजस्थान जाट क्षेत्रीय महासभा का गठन किया।

1932 में झुँझुनू में अखिल भारतीय जाट महासभा का अधिवेशन हुआ , जिसने शेखावटी किसान आंदोलन का समर्थन किया।

1933 में राजस्थान जाट क्षेत्रीय महासभा ने पलथाना, सीकर में अधिवेशन बुलाया ओर निर्णय लिया गया की 1934 को बसंत पंचमी को यज्ञ का आयोजन किया जाएगे, जिसमें आंदोलन में आगे बढ़ाने की रणनीति बनाई जायेगी।

20 जनवरी 1934 को जाट प्रजापति माहायज्ञ ,बसंत पंचमी को ठाकुर देशराज ने आयोजित करवाया। यज्ञ के बाद में यज्ञमान कुंवर हुकुम सिंह के लिये हाथी की सवारी निकाली जानी थीं लेकिन ठिकानेदार राव राजा कल्याण सिंह हाथी सवारी निकालने नहीं देता है जयपुर के राजा के आदेश के बाद हाथी की सवारी निकालने देता है।

सीहोट के सामंत मान सिंह ने सोतिया का बाँस गाँव की महिलाओं के साथ दूरव्यवहार किया। इसके ख़िलाफ़ 25 अप्रैल 1934 में कतराथल, सीकर में विशाल महिला सम्मेलन हुआ। कतराथल सम्मेलन की अध्यक्षता किशोरी देवी ने की ओर उत्तमा देवी जोरदार भाषण दिया। इस सम्मेलन में 10,000 महिलाओ ने भाग लिया था।

21 जून 1934 , जयसिंहपूरा हत्याकांड – सामंत के भाई ने किसानो के ऊपर गोली चला देता है। ये पहली घटना थी जिसमें हत्यारो को सजा हुई थीं।

25 अप्रैल 1935 में कुंदन गाँव (सीकर) की महिला धापी देवी ने अंग्रेज अधिकार कैप्टन वेब को कर देने से मना देती है जिसे कैप्टन वेब के कहने पर सिपाही गोली चला देते है। जिसमें चार किसान तुलसीराम जी, चेतराम जी, टिकूराम जी , आसाराम जी मौत हो जाती है इसी को कुंदन हत्याकांड के नाम से जाना जाता है।

15 मार्च 1945 में किसान नेता सिर छोटू राम चौधरी एवं रतन सिंह के सहयोग से किसानों ओर सावंत के बीच समझोता हो जाता है। ओर आन्दोलन समाप्त हो गया।

समझोते को पूरी तरह से नही माना गया, इसलिये ये आन्दोलन फिर से शुरू हो गया। ये आन्दोलन हीरालाल शास्त्री के सहयोग से 1947 में समाप्त हो जाता है।